चुनावों की देहलीज पर खड़े पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाता अब इस पसोपेश में हैं कि सपा कांग्रेस गठबंधन पर अधिक विश्वास करें या बसपा की रुझान बढ़ाएं. आजकल यहाँ राजनैतिक गहमा गहमी अपने चरम पर है. सूबे में समाजवादी पार्टी हमेशा ही मुस्लिम-यादव वोट के भरोसे रही है. यहाँ लगभग 20 फीसदी मुस्लिम वोट किसी भी पार्टी को सत्ता के करीब व सत्ता से दूर ले जा सकता हैं. अब अगर मुस्लिम बसपा की जाते हैं, क्यूंकि बसपा में इन विधानसभा चुनावों में बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं. तो सपा का बड़ा नुक्सान तय हैं. लेकिन अगर इन मुस्लिम वोटो का बंटवारा होता हैं तो भाजपा को लाभ ही मिलेगा.
अब तक चलन कहता है कि जो पार्टी बीजेपी को शर्तिया हराती दिखती है मुस्लिम वोटर उसी को चुनता है. और मतदाताओं का ये वर्ग समूह में वोट डालता हैं. इन विधानसभा चुनावों में भी ये ही चल चलने वाला हैं. मिस्लिम मतदाताओं को जो भी पार्टी बीजेपी को हराने की स्तिथि में दिखेगी, मुस्लिम मतदाता उसी पार्टी को अपना वोट देंगे.
वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा की अभूतपूर्व जीत के लिए मुस्लिम मतदाताओं के उसके पक्ष में सामूहिक मतदान को मुख्य कारण माना गया था. सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने कई सार्वजनिक मंचों से इस बात को स्वीकार भी किया था. सपा को मुस्लिम वोट यूँही नहीं मिले, सपा का झुकाव मुस्लिमों की और इतना था कि यूपी में मुलायम सिंह को मुल्ला मुलायम तक कहाँ जाने लगा था. लेकिन इस बार सपा की सूरत बदली सी हैं.
अखिलेश यादव ने चाचा शिवपाल को स्टार प्रचारक की लिस्ट से तो बाहर रखा ही. साथ ही उन्हें पार्टी में भी कोई तवज्जो नहीं दी जा रही हैं. इससे आहत शिवपाल ने मतगणना के बाद एक नयी पार्टी का गठन करने का एलान भी कर दिया हैं. इस सभी घटनाक्रम को देखते हुए अगर मुस्लिम वोटर के मन में अखिलेश यादव की सपा को लेकर अविश्वास की अगर एक लकीर भी खींचती हैं तो ये अखिलेश के लिए सत्ता से दूरी बनाने की लक्ष्मण रेखा साबित हो सकती हैं.
अगर मुस्लिम मतदाता बसपा की और जाता हैं तो ये छोटा से फेरबदल भी यूपी की राजनीती में बड़े बदलाव कर सकता हैं. अभी तक तो मुस्लिम मतदाता अपने वोट को लेकर खामोश हैं, लेकिन इस बार का मतदाता पिछले हर चुनावों से ज्यादा जागरूक हो गया हैं.