दलित समुदाय हमेशा से राजनीतिज्ञों का प्रिय रहा हैं. क्यूंकि इसी समुदाय को विकास के हसीन सपने दिखाकर बहुत से नेताओं ने अपने उल्लू सीधे किये हैं. कुछ लोगों ने दलित समुदाय के लिए बेहतरीन काम भी किया हैं लेकिन इनके संख्या काफी कम हैं. सहारनपुर में हाल ही में हुए दलित व ऊंची जाति के टकराव में एन नया नाम उभरा “भीम आर्मी”. रविवार के दिन इस पार्टी की अगुवाई में बहुत से लोग प्रदर्शनकारियों की कर्मस्थली “जंतर मंतर” भी पहुंचे. लेकिन अधिकतर न्यूज़ चेंनेल ने इस खबर को जयादा तूल नहीं दिया.
हालाँकि भीम आर्मी को दिल्ली पुलिस की तरफ से इजाजत नहीं थी लेकिन फिर भी करीब 5,000 दलित अधिकार कार्यकर्ता जंतर-मंतर पर इकट्ठा हुए और उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में जाति आधारित हिंसा के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की. यहाँ एकत्रित हुए नौजवानों में गजब का जोश था. उनके सिर पर भीम लिखी नीली टोपियां थीं और, सैकड़ों की तादाद में भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर के मुखौटे दिखाई दे रहे थे.
दलितों के राजनीति में प्रवेश की नई इबारत तो नहीं लिखी जा रही ?
प्रदेश में बसपा का उदय केवल दलितों के मतों के कारण ही हुआ था और इस बार आए विधानसभा चुनावों में बसपा की हालत देखकर डेल्टन का चिंतित होना लाजमी भी हैं. चुनावों के बाद भी मायावती पर लेग रहे आरोप उनके आगे के राजनितिक जीवन की मुश्किलें बढ़ा रहे हैं, ऐसे में भीम आर्मी का पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उदय दलितों के राजनीति में पुनर्प्रवेश की आशा को बल दे रहा हैं. भीम आर्मी के साथ अधिक से अधिक युवाओं के जुड़ने के पीछे एक कारण यह भी हैं. केंद्र और कई राज्यों में बीजेपी की सरकार बनने के बाद ऊंची जातियों ने अपना पुराना वर्चस्व हासिल करने की कोशिशें तेज कर दी हैं. साथ ही में जगह-जगह से दलितों की उत्पीड़न की खबरें भी आ रही हैं. ऐसे में दलितों में आक्रमकता का बढ़ना और नए रास्तों से सियासी गलियारों की तलाश की बेचैनी स्वभाविक है. कड़े सुरक्षा इंतजाम के बीच हुए दलितों के इस साकेंतिक शक्ति प्रदर्शन में ना तो मायावती का कोई पोस्टर था, ना हाथी का कोई निशान, ऐसे में भीम आर्मी दलितों का नया सियासी चेहरा बन जाएँ तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा?