समाजवादियों का दंगल थमने का नाम ही नहीं ले रहा हैं. उत्तर प्रदेश में होने वाले 2017 के चुनाव सपा की इस रस्साकशी के नाम रहेंगे. हम अगर इस खींचतान को भारतीय राजनीति का सबसे क्रूर रूप कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. हम यहाँ किसी राजनेतिक दल की खिलाफत नहीं करना चाहते लेकिन एक प्रश्न का मन में उठना लाजमी है कि जो पिता पुत्र एक दुसरे के मिजाज़ को नहीं समझ पा रहे वो प्रदेश के लोगों और उनकी समस्याओं को कैसे समझेंगे?
क्या है जड़ सपा के झगड़े की
आपको लगेगा कि हम यहाँ अमर सिंह, रामगोपाल यादव या शिवपाल यादव की बात करेंगे. हम मुलायम सिंह जी को भी अड़ियल पिता और अखिलेश जी को जिद्दी पुत्र नहीं कहंगे. इस सारे झगडे की असली वजह हैं वंशवाद. उत्तर प्रदेश में ही ये वंशवाद चल रहा हैं ऐसा नहीं हैं. बिहार में लालू के बाद उनकी पत्नी और अब उनके पुत्र राज्य की सत्ता में हैं. दक्षिण में चंद्रबाबू नायडू ने जब सत्ता संभालनी चाही थी तो वहां की जनता ने भी कमोबेश उत्तर प्रदेश जैसे घटनाक्रम को घटित हिते देखा था. डीएमके में भी वंशवाद पर ही पार्टी की जिम्मेदारी स्टॅलिन को मिली हैं.
अब अगर एक समय देश की सबसे बड़ी पार्टी रही कांग्रेस की बात करें तो आज के समय में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गण भी गाँधी परिवार के बेटे और चुनावी मौसम में गाँधी परिवार की बेटी को प्रमोट करती हैं. कांग्रेस के वंशवाद की जड़ें तो बहुत पुरानी हैं. पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने अपने जीवनकाल में ही अपनी पुत्री इंदिरा गाँधी को पार्टी का अध्यक्ष घोषित कर दिया था.
अब ये बात केवल मतदाताओं को सोचनी हैं क्या आप केवल इसलिए किसी व्यक्ति को अपना नेता चुन लेंगे क्यूंकि उसके पिता भी एक समय आपके नेता थे? अब मतदाताओं को ये सोचना हैं कि परिवारवाद के चलते उन्हें अपने मत का प्रयोग करना हैं या अपने नेताओं को और अधिक मुद्दों पर अपने नेताओं का ध्यान आकर्षित करना हैं.
इस बारें में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रंशसा के पात्र हैं, जिनके परिवार का एक भी सदस्य प्रधानमंत्री के साथ उनके सरकारी आवास में नहीं रहता. पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आज़ाद के परिवार से भी कोई व्यक्ति राष्ट्रपति भवन में नहीं रहता था.
ये विधानसभा चुनाव मतदाताओं के पास मौका हैं अपने नेताओं को ये दिखने का कि सत्ता अब लोकतान्त्रिक रूप से चलेगी न कि वंशवाद से.