आगामी लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के लिए राहुल गाँधी पीएम का चहेरा होगे ये बात तो साफ हो गई है लेकिन किसके नक्शेकदम पर चलकर ये बात हम आपको बताते है |
राजिव जैसी छवि लेकिन सोनिया जैसे काम –
एक कार्यक्रम में जम्मू-कश्मीर के पूर्व सीएम फारूख अब्दुल्ला ने राजीव गांधी के चार्म का जिक्र किया था। उन्होंने पुराने दिन याद करते हुए कहा था कि लड़कियां उनकी एक झलक पाने को बेताब रहती थीं। युवाओं में राजीव का क्रेज था। हालांकि, राजनीति और कूटनीति पर उनकी पकड़ को लेकर उस जमाने भी खूब सवाल उठे, लेकिन कुल मिलाकर राजीव गांधी का देश की चुनावी राजनीति पर असरदार था। वह कांग्रेस पार्टी और गांधी परिवार का आखिरी चेहरा थे, जिसके नाम पर पार्टी को मतदाता ने वोट दिया। उनके बाद सबसे बड़े नेता के तौर पर नरसिम्हा राव ने कमान संभाली, जो कि दक्षिण भारत से थे। राव के समय से उत्तर भारत में कांग्रेस का सूरज अस्त होना शुरू हुआ और अटल-आडवाणी के नेतृत्व में बीजेपी का उदय। बाद में कांग्रेस की सोनिया गांधी ने संभाली, लेकिन वो कभी ऐसा चेहरा नहीं रहीं, अपने दम पर चुनावी खेल बना और बिगाड़ सकें। उनसे राजीव, इंदिरा और नेहरू जैसी राजनीति की उम्मीद करना भी सही नहीं होगा, लेकिन उन्होंने सीमित ताकत के साथ हिंदुत्व को टक्कर दी। आरएसएस विरोधी खेमे को साथ लाकर सोनिया ने कांग्रेस को 10 साल केंद्र की सत्ता में बनाए रखा। ऐसे में उनके पास सबसे बेहतर विकल्प यही है कि वह मां सोनिया गांधी की तरह मोदी विरोधी खेमे को एकजुट करें और पंजाब, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा जैसे राज्यों पर फोकस करें। एक बार केंद्र की सत्ता आने के बाद वह राज्यों में खोई जमीन को हासिल कर सकते हैं।
तीन दसक से हिंदुत्व को टक्कर दे रही कांग्रेस –
करीब तीन दशक से कांग्रेस पार्टी हिंदुत्व का सामना कर रही है। यह बात सच है कि कांग्रेस इस दौरान कई बार सत्ता में रही, लेकिन सबसे अहम बात यह है कि वह एक बार अपने दम पर सरकार नहीं बना सकी। उसके हाथ से एक के बाद एक राज्य खिसकते गए। अब नौबत यह है कि उसके पास गिने-चुने राज्यों में सत्ता बची है। 1990 के राम मंदिर आंदोलन से लेकर 2014 की मोदी लहर और उसके बाद 2019 तक कांग्रेस को हिंदुत्व से ही टक्कर लेनी है। ऐसा नहीं है कि हिंदुत्व का तीर विपक्ष के तरकश में 30 साल पहले अचानक से आ गया था। विचाधारा के इस द्वंद्व से जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी को भी दो-चार होना पड़ा था, लेकिन ये फर्क सिर्फ इतना है नेहरू और इंदिरा की राजनीति में राष्ट्रवाद उतना ही महत्वपूर्ण था, जितना आज आरएसएस और बीजेपी के लिए है।