हाल ही में चंडीगढ़ में हुए निकाय चुनावों के नतीजों से भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्त्ता बहुत उत्साहित हैं और ऐसा मान रहे हैं कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों से भी उन्हें ऐसे ही परिणाम मिलेंगे. लेकिन उत्तर प्रदेश में एक अलग ही तरीके की राजनीति चलती हैं. सियासी गलियारों में ऐसा माना जाता है कि उत्तर प्रदेश की जनता ही देश का भाग्य भी निर्धारित करती हैं. जिस समय उत्तर प्रदेश में कांग्रेसियों का राज़ चलता था तब केंद्र में भी कांग्रेसी सरकार बनती थी. जैसे ही 1989 में यूपी के लोगों के बीच कांग्रेस की लोकप्रियता घटी वैसे ही केंद्र से भी कांग्रेस की दूरी बन गयी.
इस नजरिये से देखें तो उत्तर प्रदेश ने लोकसभा चुनावों में बीजेपी के लिए वोटों की झड़ी लगा दी थी. भाजपा को उत्तर प्रदेश की 80 में से 73 सीटों पर जीत मिली थी. अगर आप इसका श्रेय उस समय की मोदी लहर को देना चाहते हैं तो ये भी जान लें कि उस लहर का कुछ असर अब भी बाकि जरुर होगा.
भले ही सपा और बसपा नोटबंदी को भाजपा के खिलाफ इस्तमाल कर रहें हों लेकिन अभी भी उत्तर प्रदेश की अगड़ी जातियों का समर्थन भाजपा के साथ ही हैं. लेकिन सिर्फ अगड़ी जातियों के भरोसे यू पी का चुनाव नहीं जीता जा सकता. ये बात अमित शाह अच्छे से समझते हैं इसीलिए उन्होंने सोहेल देव पार्टी, पाजभर, मौर्य, कुशवाहा, कुर्मी, काछी, मल्लाह आदि पिछड़ी जातियों को अपने पाले में लाने की जीतोड़ कोशिश की. और किसी हद तक सफल भी हुए.
हालाँकि लोकसभा चुनावों के तुरंत बाद हुए दिल्ली के विधान सभा चुनावों में भाजपा को मुहँ की खानी पडी थी. लेकिन वहां मुकाबला बीजेपी बनाम आप था. उत्तर प्रदेश में बीजेपी को सपा , बसपा और कांग्रेस से सता की लडाई लडनी हैं. जितनी ज्यादा पार्टियाँ होंगी उतना ही अधिक वोटों का बंटवारा भी होगा.
अगर हम ये कहें कि नोटबंदी का असर बीजेपी के वोटों पर नहीं पड़ेगा तो ये गलत होगा. पश्चिमी उत्तर प्रदेश का किसान पहले ही चीनी मिलों से गन्ना भुगतान न होने से परेशान था अब नकदी की कमी की वजह से नई फसल के बीज को भी तरस रहा हैं. आने वाले विधानसभा चुनावों में नमो का जाप यूपी में सत्ता से भाजपा के 14 वर्ष के वनवास को समाप्त कर पाता है या नहीं ये देखना वास्तव में दिलचस्प होगा.