प्रधानमंत्री मोदी की लिए यूपी चुनावों में सबसे मुश्किल राह पूर्वी उत्तर प्रदेश की होने वाली हैं. इसी क्षेत्र में प्रधानमन्त्री मोदी का संसंदीय क्षेत्र वाराणसी भी आता हैं. ये क्षेत्र प्राचीनता के विषय में जितना पुराना हैं उतना ही विकास की राह में पिछड़ा हुआ भी. जब लोकसभा चुनावों में पीएम मोदी ने यहाँ विकास के नाम पर वोटों की अपील की तब यहाँ लोगों ने भर भर के नरेंद्र मोदी को वोट दिए और उन्हें पीएम बनाया.
लेकिन अभी भी यहाँ उतना विकास नहीं हुआ हैं जितना की कहा गया था. बनारस में चुनाव यूपी चुनावों के अंतिम चरण में होना हैं. 8 मार्च को होने वाले चुनावों के लिए यहाँ सभी तैयारी शुरू कर दी गयी हैं. बनारस की आठों विधानसभा सीट पर बीजेपी उम्मीदवारों के चयन की वजह से पार्टी की हालत नाजुक दिखती है. असल में यहाँ उम्मीदवारों का चयन जातिगत समीकरणों और चुनावी विश्लेषण को ध्यान में रखते हुए किया गया हैं. इसके चलते यहाँ का स्थानीय कार्यकर्त्ता खुद को अपेक्षित सा महसूस कर रहा हैं. यहाँ के मतदाताओं को रिझाने के लिए भाजपा को अपना हिन्दुत्व का दायरा बढ़ाना पड़ रहा हैं. यहाँ हिन्दुत्व को केवल अगड़ी जातियों के लिए ही आरक्षित न करके इसमें पिछड़ा वर्ग को शामिल करने के लिए गैर-यादव जाति के उम्मीदवारों का चयन किया गया हैं. हालाँकि ये रणनीति बहुत सटीक मालूम होती हैं लेकिन इसे मतदाताओं को समझा पाना उतना ही मुश्किल भी हैं.
बनारस को बीजेपी का गढ़ माना जाता हैं. लेकिन अब यहां तेजी से हालात बदल रहे हैं. इसकी वजह सियासी एकरूपता है. एक ही तरीके के वायदे सुनकर बनारस की जनता उकता चुकी हैं. बनारस की जनता ने ऐसा ही कुछ एक बार पहले भी किया था जब कोलासला विधानसभा सीट से दिग्गज कम्युनिस्ट पार्टी के नेता उदल को तब बीजेपी में नए शामिल हुए अजय राय ने शिकस्त दी थी. जबकि उदल इस सीट से नौ बार चुनाव जीत चुके थे और उनके समर्थकों की संख्या कम नहीं थी. तब किसी भी स्तर पर राय उनके साथ मुकाबला करने के काबिल नहीं थे. बावजूद वोटरों ने तब उदल की जगह राय को चुना. क्योंकि उदल का चुनाव कर मतदाता एक तरह से थक चुके थे.
मतदाताओं के मन को कोई भी विश्लेषक या चुनावी पोल भांप नहीं सकें हैं. लेकिन बनारस में भाजपा को झटका लगना तय हैं. अब ये झटका कितना तेज होगा या हल्का ये 11 मार्च को पता चलेगा.